Kargil: Ek Yatri Ki Zubani - Rishi Raj | कारगिल: एक यात्री की जुबानी - ऋषि राज |

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 यात्रा की शुरुआत

वर्ष था 1999 और जुलाई का महीना चल रहा था। उस समय मैं 24 वर्ष का नवयुवक था और यह पता होने के बावजूद कि भारत और पाकिस्तान के बीच जंग छिड़ी हुई है, मैंने फिर भी अमरनाथ यात्रा के लिए अपना पंजीकरण करवा लिया। पंजीकरण की प्रक्रिया जून 1999 में पूरी हो गई और मुझे यात्रा के पहले दिन, 25 जुलाई के लिए, दर्शनों की स्वीकृति मिल गई।



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कारगिल: एक यात्री की जुबानी



जून 1999 में कारगिल युद्ध अपने चरम पर पहुँच चुका था। भारत के युद्ध इतिहास में यह पहला ऐसा युद्ध बन चुका था, जिसे लोग अपने ड्रॉइंगरूम में बैठकर अपने टी.वी. सेट्स पर देख रहे थे; हालाँकि, इस युद्ध को टी.वी. पर दिखाना हमें थोड़ा महँगा भी पड़ गया, क्योंकि उस समय हम यह भूल गए कि इसे भारतवासियों के साथ-साथ पाकिस्तान के फौजी हुक्मरान भी देख रहे थे। खैर, मैं भी कारगिल युद्ध से जुड़ी कोई भी खबर नहीं छोड़ता था। इसकी मुख्यतः तीन वजहें थीं-पहला, मेरा भारतीय होना; दूसरा, मैं स्वयं फौज में जाना चाहता था (लेकिन जा नहीं सका, उसके पीछे कुछ वजहें थीं, जिनका जिक्र मैं आगे करूँगा) और तीसरा सबसे बड़ा एवं महत्त्वपूर्ण कारण था कि जितने भी फौजी उस समय भारत का नाम रोशन कर थे, वे सभी मेरे हमउम्र रहे थे कोई मुझसे एक साल बड़ा था और कोई साल भर छोटा। उन सभी में मैं अपना प्रतिनिधित्व देखता था और यकीन मानिए, आज भी मुझे ऐसा ही लगता है।

उस समय वे सभी योद्धा एक असल नायक के रूप में उभरकर आए यात्रा की शुरुआत थे। घर-घर में बच्चे-बच्चे की जुबान पर उन्हीं नायकों के नाम थे। होते भी क्यों नहीं, क्योंकि वे कोई फिल्मी नायक नहीं, बल्कि असल जिंदगी के नायक थे, जो रोजाना अपनी जान हथेली पर रखकर युद्धक्षेत्र में दुश्मन से रू-बरू होकर उनके साथ दो-दो हाथ कर रहे थे। उनमें प्रमुख नाम थे कैप्टन विक्रम बत्रा, कैप्टन मनोज पांडेय, कैप्टन अनुज नैय्यर, कैप्टन सौरभ कालिया, कैप्टन विजयंत थापर इत्यादि। भारत देश सदा से ही शूरवीरों की धरती रही है, जहाँ सदैव ही अत्यंत बेखौफ महावीरों ने जन्म लिया है और इतिहास गवाह है कि जब-जब भारत माता पर संकट आया है, इन वीरों ने अपने प्राणों का बलिदान देने में क्षण भर भी नहीं लगाया। मई 1999 में हमें यह समझने में थोड़ा वक्त अवश्य लगा कि यह कारस्तानी पाकिस्तानी सेना और सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ की है, लेकिन जल्द ही भारतीय सेना ने परिस्थिति को बहुत अच्छे से सँभाल लिया और पाकिस्तानी सेना को उसकी औकात बताना शुरू कर दिया। जून का अंत आते-आते भारत युद्ध में अपना वर्चस्व स्थापित करने लगा। भारत के वीरों ने बाजी पलट दी थी। पाकिस्तानियों को खदेड़ने की प्रक्रिया गति पकड़ चुकी थी।

मेरा घर दिल्ली में जम्मू-श्रीनगर-कन्याकुमारी हाइवे (उस समय का एन.एच.-1) पर ही स्थित है। पूरे युद्ध के दौरान शाम होते-होते रोजाना फौज की कई सारी गाड़ियाँ यहाँ से निकलतीं, जिन पर गहरे हरे रंग की तिरपाल में लिपटी कई सारी बख्तरबंद गाड़ियाँ, तोपें इत्यादि लदी होती थीं, जिन्हें हम

जाने की तीव्र इच्छा मुझसे रोज यह प्रार्थना करवाती कि हे ईश्वर! यह युद्ध जल्द समाप्त हो। हम जल्द विजयी हों और मेरी अमरनाथ यात्रा निर्विघ्न रूप से संपन्न हो जाए। 22 जुलाई, 1999 की शाम को मैं पूजा एक्सप्रेस से जम्मू के लिए रवाना हो गया। संतोष की बात यह थी कि इस समय तक भारत ने पाकिस्तानी सेना को लगभग पूरी तरह से अपनी जमीन से खदेड़कर वापस पाकिस्तान में धकेल दिया था। लेकिन फिर भी, आधिकारिक रूप से युद्ध-समाप्ति की यात्रा की शुरुआत घोषणा 26 जुलाई को हुई थी, जिसे आज हम 'कारगिल विजय दिवस' के रूप में मनाते हैं।

23 जुलाई, 1999 की उस सुबह को मैं जम्मू पहुँच गया। जम्मू में सबकुछ सामान्य-सा प्रतीत हो रहा था। कुछ फौजी हलचल ज्यादा दिखाई दे रही थी। मैं जिन-जिन लोगों से मिला, वे सभी इस बात से संतुष्ट व प्रसन्न दिखाई दिए कि आखिरकार, भारतीय सेना ने पाकिस्तान को मुँहतोड़ जवाब देकर भारत का मान रख लिया। बाजार से कुछ सामान खरीदा, जो यात्रा के लिए आवश्यक था। पहलगाम के लिए हमारी बस अगले दिन सुबह 5 बजे मौलाना आजाद स्टेडियम से जाने वाली थी, जिसके लिए हमने अग्रिम टिकट खरीद लिये थे। हम सभी लोग अपने एक मित्र अरविंद शर्मा के एक चचेरे भाई, राजीव बडूजी के यहाँ ठहर गए। सुबह के 4 बजे हमें स्टेडियम में रिपोर्ट करना था। अतिरिक्त एक घंटा सघन सुरक्षा जाँच के लिए रखा गया था। 24 जुलाई, 1999 को सुबह के 4 बजे हम अपने निर्धारित समय पर मौलाना आजाद स्टेडियम पहुँच गए। बडूजी अपनी मारुति 800 से हमें छोड़ने आए। इस तरह से हमारी इस कालजयी यात्रा की शुरुआत हुई, जिसका सपना न जाने कितने वर्षों से मैं सँजोए हुए था। बचपन में चित्रहार पर कई बार एक गाना बजता था, 'चलो अमरनाथ, चलो अमरनाथ, भाई' उसे जब-जब देखता तो अमरनाथ जाने की मेरी इच्छा और बलवती हो जाती। बसों का पूरा काफिला पुलिस एवं सेना द्वारा प्रदत्त सुरक्षा घेरे में अमरनाथजी के लिए निकल पड़ा। शाम तक हम पहलगाम पहँच गए।




कारगिल युद्ध का मुख्य केंद्र द्रास था, जो कि कारगिल से करीब 64 कि.मी. की दूरी पर है। अमरनाथ के आधार कैंप बालटाल से द्रास की दूरी मात्र 48 कि.मी. की है। उस वक्त हमारे कुछ साथी द्रास चले गए, जो यहाँ से केवल सवा घंटे की दूरी पर था, शायद युद्ध के दौरान हुई विभीषिका को देखने के लिए। परंतु, मैं नहीं जा सका। पर यह प्रण लिया कि एक-न-एक दिन द्रास और कारगिल की पवित्र भूमि पर नमन करने जरूर जाऊँगा। पहले जुलाई 2007 और फिर अक्तूबर 2018 में मुझे इस भूमि पर पुनः वंदन करनेकारगिल : एक यात्री की जुबानी का सौभाग्य प्राप्त हो ही गया। वर्ष 2007 में मैं दिल्ली से लेह और फिर लेह से कारगिल आया और वापसी श्रीनगर से की। फिर वर्ष 2018 में मैं दिल्ली से सीधे श्रीनगर होते हुए द्रास आया और आगे कारगिल तक गया और वापसी पुनः श्रीनगर से की। 22 अक्तूबर, 2018 को सुबह 10 बजे हमारा विमान श्रीनगर की जमीन पर उतर गया। उतरकर सबसे पहले हमने मेजर सोमनाथ शर्मा के स्मारक पर नमन किया। यह स्मारक एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही बना हुआ है। वर्ष 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में श्रीनगर एयरपोर्ट व बडगाम इलाके की सुरक्षा की जिम्मेदारी मेजर सोमनाथ शर्मा के कंधों पर थी, जो इन्होंने अपने प्राणों का बलिदान देकर निभाई। इस अत्यंत मेजर सोमनाथ शर्मा असाधारण वीरता के प्रदर्शन के लिए उन्हें 'परमवीर चक्र' से सम्मानित किया गया।

हॉकी खेलते हुए एक हाथ टूट जाने के बावजूद उन्होंने बडगाम क्षेत्र को कबाइलियों के हमले से सुरक्षित बचा लिया; पर अपना सर्वोच्च बलिदान दे दिया। शहीद होने से कुछ समय पूर्व मेजर सोमनाथ शर्मा ने अपने मुख्यालय को भेजे गए संदेश में कहा था, 'शत्रु हमसे केवल 50 गज की दूरी पर है, फिर भी हम एक इंच पीछे नहीं हटेंगे।' मेजर सोमनाथ शर्मा के अलावा कश्मीर की लड़ाई में कंपनी हवलदार मेजर पीरू सिंह शेखावत, लांस नायक करम सिंह, नायक जदुनाथ सिंह और सेकंड लेफ्टिनेंट राम राघोबा राणे का बहुत बड़ा हाथ था। इन सभी को 'परमवीर चक्र' से नवाजा गया। स्वतंत्र भारत के इतिहास में 'परमवीर चक्र' से सम्मानित किए जानेवाले मेजर सोमनाथ शर्मा सबसे पहले सैन्य अधिकारी बने। मैं यहाँ बताना चाहूँगा कि 'परमवीर चक्र' की शुरुआत 26 जनवरी, 1950 से हुई थी।

एयरपोर्ट से निकलते ही डल झील को पार करते हुए हम बढ़ चले अपने


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Title -  कारगिल: एक यात्री की जुबानी
ISBN - 9789355211651

Author - ऋषि राज /  Rishi Raj
To Buy - https://www.amazon.in/dp/9355211651/
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